Thursday, September 16, 2010

रात में उगा सूरज

रात के आठ बज रहे थे। यह वक़्त देश के ज़्यादातर गांवों की तरह महेंद्रगढ़ के बेवल गांव के लिए भी खा-पीकर सोने का था। लेकिन उस रात पूरा गांव जाग रहा था। इससे ज़्यादा अजीब बात थी कि ज़िले के दो आला अधिकारियों की भी आंखें थकने के बावजूद खुली रहने के लिए मजबूर थीं। 13 सितंबर 2010 की उस रात बेवल गांव में जो कुछ हुआ, उसने पूरे देश में एक नई सुबह की उम्मीद जगा दी है। गांव में हुई इस ऐतिहासिक घटना का गवाह बनने से ख़ुशी और बढ़ गई है।

हरियाणा के महेंद्रगढ़ ज़िला मुख्यालय से क़रीब तीस किलोमीटर दूर स्थित बेवल गांव एक पारंपरिक गांव की सारी ख़ूबियों को समेटे हुए है। एक ऐसा गांव, जहां विकास काग़ज़ों में तो दौड़ता है मगर गांव की हालत देखकर लगता है कि वह बैलगाड़ी पर सवार है। इलाक़े की बलुई मिट्टी बग़ैर ठीक से पानी पिए गांव का पेट नहीं भरती है। इसके बावजूद गांव की ज़्यादातर आबादी के पास खेती पर निर्भर रहने के अलावा कोई विकल्प नहीं है।

विकल्प की ऐसी ही कमी चुनाव के मामले में भी थी। भ्रष्टाचार की तमाम शिक़ायतों के बावजूद गांव का सरपंच लगातार दो बार जीतने में क़ामयाब हो चुका था। लेकिन जून 2010 में हुए पंचायत चुनाव में सरपंच महावीर सिंह का मुक़ाबला संजय ब्रह्मचारी उर्फ़ स्वामी जी से हुआ। 40 साल के स्वामी जी ने ऐलान किया कि सरपंच बनने पर वो गांव से जुड़े सभी फैसले ग्राम सभा की खुली बैठक में लेंगे।

बेवल में ग्राम सभा की खुली बैठक कभी नहीं हुई थी। लिहाज़ा गांव के लोगों को ये आइडिया रास आ गया। नतीजा, प्रचार पर बग़ैर पैसे ख़र्च किए स्वामी जी क़रीब पांच सौ वोटों से सरपंच का चुनाव जीत गए। नए सरपंच ने पारी की शुरुआत अपने किए गए वादे के साथ करने का फैसला किया। स्वामी जी ने कहा कि वह सरंपच के चार्ज लेने की औपचारिकता ग्राम सभा की बैठक में पूरी करेंगे।

क़ानून के मुताबिक हारे हुए सरपंच को नए सरपंच के हाथों में चार्ज सौंपना होता है, जिसमें पुराना सरपंच अपने कार्यकाल के दौरान रखे गए खातों और काग़ज़ात को नए सरपंच के हवाले करता है। हालांकि आमतौर पर होता यह है कि अधिकारी इन खातों को सरपंच को अकेले में सौंपकर उससे चार्ज लेने संबंधी काग़ज़ पर दस्तख़त ले लेते हैं। लेकिन स्वामी जी ने ऐसा करने से मना कर दिया।

स्वामी जी के इनकार की वजह पूर्व सरपंच की तरफ से किए गए कथित घोटाले थे। महीना गुज़र गया। स्वामी जी को चार्ज नहीं दिया गया। एक दिन ग्राम सचिव समेत कुछ अधिकारी चार्ज देने के लिए पहुंचे। स्वामी जी ने ग्राम सभा की बैठक बुला ली। जब काग़ज़ों का मिलान शुरु हुआ, तो उनमें भारी गड़बड़ी पाई गई। जमा शेष यानी कैश इन हैंड और वास्तविक रक़म में काफ़ी अंतर था।

स्वामी जी के मुताबिक गांव के तमाम फंडों से क़रीब साढ़े तीन लाख रुपये की रक़म सरपंच ने अपना कार्यकाल ख़त्म होने के बाद निकाल लीं। जबकि क़ानून के मुताबिक कार्यकाल ख़त्म होने के बाद सरपंच गांव के किसी भी फंड से पैसे नहीं निकाल सकता, और उसे सारे काग़ज़ात उसी वक़्त बीडीओ के पास जमा करने होते हैं। इसके अलावा रिकॉर्ड में कई और अनियमितताएं पाई गईं।

स्वामी जी ने कहा कि वो चार्ज तभी लेंगे, जब इन सारी गड़बड़ियों को अधिकारी लिखित रूप में देंगे। अधिकारी अगले दिन आने और सब कुछ लिखित में देने का आश्वासन देकर चले गए। लेकिन अगले कई दिनों तक अधिकारी आए ही नहीं। उल्टे स्वामी जी को नोटिस मिल गया कि उन्होंने अधिकारियों को गांव में बंधक बनाकर रखा।

प्रशासन की मनमर्ज़ी यहीं ख़त्म नहीं हुई। चार्ज नहीं दिए जाने के लिए स्वामी जी को ज़िम्मेदार ठहराते हुए ज़िले के डिप्यूटी कमिश्नर ने उन्हें एक कारण बताओ नोटिस थमा दिया गया कि क्यों न उन्हें सस्पेंड कर दिया जाए। जबकि हरियाणा पंचायती राज अधिनियम, 1994 ऐसे किसी आधार पर एक चुने हुए सरपंच को निलंबित करने का अधिकार डीसी को नहीं देता।

बात हैरत में डालने वाली थी कि एक आदमी जो पारदर्शिता और जवाबदेही के साथ काम करना चाहता है, उसे ही प्रशासन की ही तरफ से परेशान किया जाए। और भी हैरत की बात ये थी कि इस मामले में मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा से मिलने पर भी कुछ हासिल नहीं हुआ। लेकिन स्वामी जी के साथ पूरा गांव खड़ा था, इसलिए प्रशासन को झुकना ही पड़ा।

13 सितंबर को सुबह दस बजे ज़िले के दो आला अधिकारी मामले को सुलटाने के लिए गांव में पहुंचे। ये थे ज़िला विकास एवं पंचायत अधिकारी (डीडीपीओ) दीपक यादव और अतिरिक्त उपायुक्त (एडीसी) पंकज। उस वक़्त दिल्ली से एक मीडिया टीम कवरेज के लिए पहुंची हुई थी। स्वामी जी ने अधिकारियों के पहुंचते ही ग्राम सभा की बैठक बुला ली।

गांव के एक प्राचीन मंदिर के पास स्थित हॉल के अंदर सुबह 11 बजे अधिकारियों की मौजूदगी में ग्राम सभा की बैठक शुरु हुई। काग़ज़ात से भरी दो बोरियां सबके सामने रखी गईं। इसके बाद एक-एक करके इन रिकॉर्ड्स और वाउचर का मिलान करने का काम शुरू किया गया। यह काम मुश्किल और थकाऊ होने के बावजूद बेहद ज़रूरी था।

एक के बाद एक गड़बड़ियां सामने आ रही थीं। मसलन कैशबुक में दिखाई गई राशि से कहीं ज़्यादा पैसे निकाले गए थे। कई जगहों पर वाउचर एंट्री की गई है, लेकिन रसीदें नदारद थीं। कहीं कैशबुक में एंट्री थी, लेकिन मस्टरोल का पता नहीं चला। गांव के कई फंड से लाखों रुपये ग़ैरक़ानूनी तरीक़े से निकाले जाने की बात सामने आई।

पूर्व सरपंच महावीर सिंह इस पूरी कार्यवाही के दौरान ग़ैरमौजूद रहे, लेकिन दोनों अफ़सर कई घंटे तक सभा से हिले तक नहीं। शाम हो चली थी। लगा कि आज काम ख़त्म नहीं हो पाएगा। लेकिन गांव वाले हैंडओवर दिलाने का मन बना चुके थे, तो वहीं दूसरी तरफ अधिकारियों को भी लगने लगा था कि आज उनकी जान छूटने वाली नहीं है।

दिलचस्प बात ये रही कि कई घंटे से चल रही कार्यवाही के बावजूद ये तय नहीं था कि चार्ज सौंपा जा सकेगा या नहीं। क़रीब नौ घंटे बाद यह पाया गया कि चार्ज लेने के लिहाज़ से महत्वपूर्ण ज़्यादातर मुख्य रिकॉर्ड्स का मिलान किया जा चुका है। लेकिन इनमें सामने आई गड़बड़ियों की ज़िम्मेदारी कौन लेगा, यह सवाल अब भी बना हुआ था।

अधिकारी गड़बड़ियों के बारे में कुछ भी लिखित में देने से कतरा रहे थे। लेकिन स्वामी जी बग़ैर लिखित में दिए जाने के लिए चार्ज नहीं लेने की मांग पर अड़े रहे। ग्राम सभा में मौजूद लोगों की तरफ से उन्हें मिलने वाले समर्थन के कारण अधिकारी गड़बड़ियों के बारे में एकनॉलेजमेंट देने के लिए तैयार हो गए।

आख़िरकार रात सवा आठ बजे यानी नौ घंटे से ज़्यादा समय बीतने के बाद नव निवार्चित सरपंच स्वामी जी ने चार्ज लेने की घोषणा की। देश के इतिहास में संभवत: यह पहला मामला है, जब किसी सरपंच को ग्राम सभा की खुली बैठक में चार्ज सौंपा गया हो। बेवल गांव की ये घटना देश के लाखों अन्य गांवों के लिए एक नज़ीर साबित हो सकती है।

बेवल गांव के लोगों ने अपने इस संघर्ष से संदेश दिया है कि पंचायती राज का मक़सद तभी पूरा हो पाएगा, जब पंचायतें चंद लोगों के हाथ की जागीर बनकर न रहें। गांव का विकास और ख़ुशहाली तभी मुमकिन है, जब फैसले लेने की ताक़त वास्तव में उन्हें मिले। स्वराज के इस रास्ते पर बेवल गांव को अभी काफी दूर तक चलना है, लेकिन इसके लिए सबसे महत्वपूर्ण यानी पहला क़दम गांव के लोगों ने बढ़ा दिया है।

समय देने के लिए शुक्रिया। प्रतिक्रियाओं के लिए निवेदन है।

Wednesday, January 20, 2010

चीनी कम, मीठा ज़्यादा

दुकान से एक किलो चीनी के लिए 45 रुपये ढीले करने के बाद शर्मा जी सरकार को गरियाते हुए घर की तरफ मुड़े। “हद है, इतनी महंगी चीनी। क्या कर रही है सरकार? भाव बढ़ते ही जा रहे हैं।“ फिर पड़ोस के गुप्ता जी ने समझाया कि जनाब आख़िर सस्ता क्या है। दाल, आटा, दूध, मकान का किराया, बस का भाड़ा, बच्चों की फीस, डॉक्टर की कंसलटेशन, सब महंगे हैं। लेकिन फिर कमबख़त चीनी शर्मा जी को सबसे ज़्यादा परेशान की हुई थी।

घर पहुंचे। चाय की तलब मिटाने के लिए पत्नी को बोलने ही वाले थे कि आवाज़ पहुंची- “जल्दी तैयार हो जाइए, अस्थाना जी के बेटे की शादी की पार्टी के लिए लेट हो जाएंगे।“ अब मुद्दा चीनी नहीं, पार्टी था। वेन्यू पर पहुंचे। खाना शुरु हो चुका था। आइटमों की कमी नहीं थी। किसिम-किसिम की तरकारी, दालें, चटनी, चाइनीज़ आइटम और लास्ट में स्वीट डिश के नाम पर रबड़ी-जलेबी, गुलाब जामुन और आइसक्रीम भी थी।

खाना खाने के बाद स्वीट डिश के काउंटर पर गुप्ता जी फिर मिल गए। चीनी का मुद्दा भी लौट आया। “भई, मेरे हिसाब से तो इसके लिए किसान ही ज़िम्मेदार है। गन्ना उगाया ही नहीं इस बार। चीनी होगी कहां से।“ आगे की बात उनके मुंह में पहुंचे गुलाब जामुन ने रोक दी। प्लेट में रबड़ी-जलेबी लिए शर्मा जी ने कहा- “भई सरकार भी तो कोई चीज़ होती है। केंद्र और राज्य में तालेमेल नहीं हैं। एक सरकार आयात को छूट देती है, दूसरी सख़्त कर देती है।“

तीसरी ज़िम्मेदारी जमाखोरों पर थोपी गई। माना गया कि चीनी की कोई कमी नहीं है, लेकिन सरकार जमाख़ोरों पर लगाम नहीं लगा पा रही। इसी क्रम में सूखे का भी नंबर आया। पूरी बहस के बीच कई राउंड स्वीट डिश और आइसक्रीम चलती रही, जो बहस करने वालों को ईंधन मुहैया करा रही थीं। ख़ाना ख़तम हुआ, मेहमान घरों की तरफ लौटने लगे। लेकिन मुद्दा अब भी वहीं का वहीं कि- महंगी चीनी के लिए ज़िम्मेदार कौन?

क्या सरकार, चीनी मिलें, जमाख़ोरी, किसान और सूखा जैसे कारक ही चीनी की क़ीमतें तय कर रही हैं? इस चीनी का उपभोग करने वालों, यानी हमारी क्या इसमें कोई भूमिका नहीं है? अर्थशास्त्र का सिंपल सा फार्मूला है डिमांड और सप्लाई का। डिमांड ज़्यादा- सप्लाई कम, तो क़ीमत ऊपर और उल्टा हुआ तो क़ीमत नीचे। तो भई डिमांड तो हम ही लोग तय कर रहे हैं ना?

अब सवाल उठता है कि चीनी की डिमांड भला कैसे कम की जा सकती है, ये तो एसेंशियल टाइप आइटम है। बात ठीक है, लेकिन कुछ तो कंट्रोल किया ही जा सकता है। अब भला शादी-ब्याह में तीन-तीन स्वीट डिश आइटम परोसने का क्या ज़रूरत है? और क्या खाने वालों ने कभी इस बात को महसूस किया कि चीनी की इस बर्बादी की मार आख़िरकार उन्हीं को झेलनी पड़ेगी?

ऐसा नहीं है कि सरकार इसमें कुछ भी नहीं कर सकती। देश में एक वक़्त जब खाद्यान्न संकट पैदा हुआ था, तो तब के प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने देशवासियों से एक ही टाइम खाना खाने की अपील की थी। अगर सरकार ये मानती है कि देश में चीनी की कमी है, तो फिर शादी-पार्टियों में स्वीट डिश परोसने पर रोक लगा देनी चाहिए। हालांकि इसका असर तभी हो सकेगा जब रोक के साथ-साथ इसे ईमानदारी से इम्लीमेंट भी किया जाए।

बात चीनी की हो या चीन की। किसी को भी भाव देना बंद कर दो, उसका भाव अपने आप गिर जाएगा। और अगर ऐसा न कर सको, तो कम से कम उसे बढ़ावा देना तो सरासर ग़लत है। उपभोग पर न सही, दिखावे पर तो लगाम लगाई ही जा सकती है। आख़िर कब तक दिखावे के नाम पर हम अपने ही मुद्दों को नज़रअंदाज़ करते रहेंगे? चपत लगने से अच्छा है कि ख़पत पर कंट्रोल करें। क्यों शर्मा जी?

Disclaimer- Sharma ji and other names are imaginary and have not been used to defame any person or any group of society.