Tuesday, January 21, 2014

बदले बिना बदलाव ?



दो दिन से मेट्रो के तीन-चार स्टेशन बंद हैं। सड़क पर मजमा लगा है। कोई कह रहा है अराजकता फैल रही है। कोई कहता है न जाने कितने मरीज़ अस्पताल देर से पहुंचे। ये भी कहा जा रहा है कि 26 जनवरी की परेड की तैयारी नहीं हो पा रही। लोगों की सुरक्षा ख़तरे में है। सरकार ही ऐसे करेगी, तो लोगों में क्या संदेश जाएगा। 

बहुत से लोग इसके लिए दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल को ज़िम्मेदार ठहरा रहे हैं। कुछ का मानना है कि उनकी मांग (दिल्ली पुलिस का नियंत्रण दिल्ली सरकार को देना) सही नहीं है। कुछ का मानना है कि उनकी मांगें सही हो सकती हैं, लेकिन उसे मनवाने का तरीका ग़लत है।

पहले, उनकी मांगों के औचित्य पर बात कर लेते हैं। दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा नहीं मिला है। कई महत्वपूर्ण विभाग अब भी केंद्र सरकार के पास हैं, जिनमें दिल्ली पुलिस भी एक है। दिल्ली जब भी अपराध की वजह से चर्चा में आती है, दिल्ली सरकार अपनी मजबूरी बता देती है।

कई बार कांग्रेस की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित भी दिल्ली पुलिस को कठघरे में खड़ा कर चुकी हैं। यानी अब तक कि सरकारों ने भी माना है कि दिल्ली की सुरक्षा व्यवस्था में खामियां हैं। पता नहीं कि पूर्व गृह सचिव आर के सिंह की बातों में कितनी सच्चाई है जिसके मुताबिक दिल्ली के थाने बिके हुए हैं। बात यहां तर्क की है। 

दिल्ली में हाल के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को जनता ने नकार दिया। ज़ाहिर तौर पर इस बार चुनाव में सुरक्षा, ख़ासकर महिलाओं की सुरक्षा भी एक बड़ा मुद्दा था। सुरक्षा दिल्ली में रह रहे लोगों की, जिन्होंने अपनी सरकार चुनी है। ऐसे में इनकी सुरक्षा की ज़िम्मेदारी उस पार्टी की सरकार को कैसे दी जा सकती है, जिसे लोगों ने चुनाव में नकार दिया

अब लोगों को बरगलाया जाता है कि दिल्ली राज्य ही नहीं, देश की राजधानी भी है और इसलिए संवेदनशील है। यहां वीवीआईपी की सुरक्षा सूबे की सरकारों के भरोसे नहीं छोड़ी जा सकती। इसका मतलब है कि दिल्ली के बहुसंख्यक आम आदमी की सुरक्षा से ज़्यादा अहम है वीवीआईपी की सुरक्षा?

ऐसा नहीं है कि राज्य के हाथ में पुलिस की कमान सौंपने से सारी समस्याओं का हल हो जाएगा। अगर होता, तो बाक़ी राज़्यों की पुलिस बेहतर कर रही होती। लेकिन जब ये साबित हो चुका है कि दिल्ली में सुरक्षा का मौजूदा सिस्टम फेल हो चुका है, तो उससे चिपके रहने का क्या मतलब है?

अब बात करते हैं विरोध के तरीकों की। अगर धरना-प्रदर्शन करना विरोध का ग़लत तरीक़ा है, तो गांधीवादी तरीका क्या है? क्या मंत्री बनने से किसी के नागरिक अधिकार ख़त्म हो जाते हैं? कौन सा ऐसा उपाय किया जाय, जिससे बात बन जाय? क्या आपको लगता है कि केंद्र सरकार दिल्ली पुलिस की डोर किसी और तरीके से राज्य सरकार को सौंप देगी, अगर हो तो ज़रूर शेयर कीजिए।

अब बात लोगों को हो रही मुश्क़िलों की। क्या मेट्रो के स्टेशन अरविंद केजरीवाल ने बंद कराए? क्या दिल्ली की ट्रैफिक इतनी बेक़ाबू हो गई कि उसे संभाला नहीं जा सकता? मैं मानता हूं कि बहुत से भाइयों-बहनों की तक़लीफ़ें झेलनी पड़ रही हैं। लेकिन मुझे बताइए कि बिना तक़लीफ़ के किस बदलाव की उम्मीद करते हैं हम?

क्या हमें आज़ादी कप-प्लेट में रख कर दी गई थी? क्या बरसों पुराने ये सिस्टम बिना किसी परेशानी के बदल जाएंगे? क्या हम ये कह रहे हैं कि हमें बदलाव चाहिए, लेकिन एक भी दिन ऑफिस लेट हुए बिना? क्या हम ऐसी हर कोशिश को ये कहकर ख़ारिज करते रहेंगे कि इसमें किसी की राजनीतिक महत्वाकांक्षा है

अगर ऐसा है तो फिर वाकई केजरीवाल अपना और आपका समय ख़राब कर रहे हैं। छोड़िए ये सब। 26 जनवरी की परेड देखते हैं। 5000 किलोमीटर तक मार करने वाली मिसाइल बना ली हमने। सीना चौड़ा करते हैं और आंखें मूंद लेते हैं कि अतिथि देवो भव: वाले इस देश में विदेशी पर्यटक के साथ रेप भी थोड़ी ही दूरी पर हुआ था। क्या फर्क़ पड़ता है कि इस मामले में आजतक किसी पुलिस कर्मचारी की ज़िम्मेदारी तय नहीं की जा सकी। 

पहले ठीक था। जल्द ही फिर ठीक हो जाएगा। फिर मेट्रो चलेगी। 26 जनवरी की परेड होगी। सरकार सचिवालय से काम करेगी। कोई धरना-प्रदर्शन नहीं होगा। फिर तो हम ख़ुश होंगे न?



Thursday, September 16, 2010

रात में उगा सूरज

रात के आठ बज रहे थे। यह वक़्त देश के ज़्यादातर गांवों की तरह महेंद्रगढ़ के बेवल गांव के लिए भी खा-पीकर सोने का था। लेकिन उस रात पूरा गांव जाग रहा था। इससे ज़्यादा अजीब बात थी कि ज़िले के दो आला अधिकारियों की भी आंखें थकने के बावजूद खुली रहने के लिए मजबूर थीं। 13 सितंबर 2010 की उस रात बेवल गांव में जो कुछ हुआ, उसने पूरे देश में एक नई सुबह की उम्मीद जगा दी है। गांव में हुई इस ऐतिहासिक घटना का गवाह बनने से ख़ुशी और बढ़ गई है।

हरियाणा के महेंद्रगढ़ ज़िला मुख्यालय से क़रीब तीस किलोमीटर दूर स्थित बेवल गांव एक पारंपरिक गांव की सारी ख़ूबियों को समेटे हुए है। एक ऐसा गांव, जहां विकास काग़ज़ों में तो दौड़ता है मगर गांव की हालत देखकर लगता है कि वह बैलगाड़ी पर सवार है। इलाक़े की बलुई मिट्टी बग़ैर ठीक से पानी पिए गांव का पेट नहीं भरती है। इसके बावजूद गांव की ज़्यादातर आबादी के पास खेती पर निर्भर रहने के अलावा कोई विकल्प नहीं है।

विकल्प की ऐसी ही कमी चुनाव के मामले में भी थी। भ्रष्टाचार की तमाम शिक़ायतों के बावजूद गांव का सरपंच लगातार दो बार जीतने में क़ामयाब हो चुका था। लेकिन जून 2010 में हुए पंचायत चुनाव में सरपंच महावीर सिंह का मुक़ाबला संजय ब्रह्मचारी उर्फ़ स्वामी जी से हुआ। 40 साल के स्वामी जी ने ऐलान किया कि सरपंच बनने पर वो गांव से जुड़े सभी फैसले ग्राम सभा की खुली बैठक में लेंगे।

बेवल में ग्राम सभा की खुली बैठक कभी नहीं हुई थी। लिहाज़ा गांव के लोगों को ये आइडिया रास आ गया। नतीजा, प्रचार पर बग़ैर पैसे ख़र्च किए स्वामी जी क़रीब पांच सौ वोटों से सरपंच का चुनाव जीत गए। नए सरपंच ने पारी की शुरुआत अपने किए गए वादे के साथ करने का फैसला किया। स्वामी जी ने कहा कि वह सरंपच के चार्ज लेने की औपचारिकता ग्राम सभा की बैठक में पूरी करेंगे।

क़ानून के मुताबिक हारे हुए सरपंच को नए सरपंच के हाथों में चार्ज सौंपना होता है, जिसमें पुराना सरपंच अपने कार्यकाल के दौरान रखे गए खातों और काग़ज़ात को नए सरपंच के हवाले करता है। हालांकि आमतौर पर होता यह है कि अधिकारी इन खातों को सरपंच को अकेले में सौंपकर उससे चार्ज लेने संबंधी काग़ज़ पर दस्तख़त ले लेते हैं। लेकिन स्वामी जी ने ऐसा करने से मना कर दिया।

स्वामी जी के इनकार की वजह पूर्व सरपंच की तरफ से किए गए कथित घोटाले थे। महीना गुज़र गया। स्वामी जी को चार्ज नहीं दिया गया। एक दिन ग्राम सचिव समेत कुछ अधिकारी चार्ज देने के लिए पहुंचे। स्वामी जी ने ग्राम सभा की बैठक बुला ली। जब काग़ज़ों का मिलान शुरु हुआ, तो उनमें भारी गड़बड़ी पाई गई। जमा शेष यानी कैश इन हैंड और वास्तविक रक़म में काफ़ी अंतर था।

स्वामी जी के मुताबिक गांव के तमाम फंडों से क़रीब साढ़े तीन लाख रुपये की रक़म सरपंच ने अपना कार्यकाल ख़त्म होने के बाद निकाल लीं। जबकि क़ानून के मुताबिक कार्यकाल ख़त्म होने के बाद सरपंच गांव के किसी भी फंड से पैसे नहीं निकाल सकता, और उसे सारे काग़ज़ात उसी वक़्त बीडीओ के पास जमा करने होते हैं। इसके अलावा रिकॉर्ड में कई और अनियमितताएं पाई गईं।

स्वामी जी ने कहा कि वो चार्ज तभी लेंगे, जब इन सारी गड़बड़ियों को अधिकारी लिखित रूप में देंगे। अधिकारी अगले दिन आने और सब कुछ लिखित में देने का आश्वासन देकर चले गए। लेकिन अगले कई दिनों तक अधिकारी आए ही नहीं। उल्टे स्वामी जी को नोटिस मिल गया कि उन्होंने अधिकारियों को गांव में बंधक बनाकर रखा।

प्रशासन की मनमर्ज़ी यहीं ख़त्म नहीं हुई। चार्ज नहीं दिए जाने के लिए स्वामी जी को ज़िम्मेदार ठहराते हुए ज़िले के डिप्यूटी कमिश्नर ने उन्हें एक कारण बताओ नोटिस थमा दिया गया कि क्यों न उन्हें सस्पेंड कर दिया जाए। जबकि हरियाणा पंचायती राज अधिनियम, 1994 ऐसे किसी आधार पर एक चुने हुए सरपंच को निलंबित करने का अधिकार डीसी को नहीं देता।

बात हैरत में डालने वाली थी कि एक आदमी जो पारदर्शिता और जवाबदेही के साथ काम करना चाहता है, उसे ही प्रशासन की ही तरफ से परेशान किया जाए। और भी हैरत की बात ये थी कि इस मामले में मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा से मिलने पर भी कुछ हासिल नहीं हुआ। लेकिन स्वामी जी के साथ पूरा गांव खड़ा था, इसलिए प्रशासन को झुकना ही पड़ा।

13 सितंबर को सुबह दस बजे ज़िले के दो आला अधिकारी मामले को सुलटाने के लिए गांव में पहुंचे। ये थे ज़िला विकास एवं पंचायत अधिकारी (डीडीपीओ) दीपक यादव और अतिरिक्त उपायुक्त (एडीसी) पंकज। उस वक़्त दिल्ली से एक मीडिया टीम कवरेज के लिए पहुंची हुई थी। स्वामी जी ने अधिकारियों के पहुंचते ही ग्राम सभा की बैठक बुला ली।

गांव के एक प्राचीन मंदिर के पास स्थित हॉल के अंदर सुबह 11 बजे अधिकारियों की मौजूदगी में ग्राम सभा की बैठक शुरु हुई। काग़ज़ात से भरी दो बोरियां सबके सामने रखी गईं। इसके बाद एक-एक करके इन रिकॉर्ड्स और वाउचर का मिलान करने का काम शुरू किया गया। यह काम मुश्किल और थकाऊ होने के बावजूद बेहद ज़रूरी था।

एक के बाद एक गड़बड़ियां सामने आ रही थीं। मसलन कैशबुक में दिखाई गई राशि से कहीं ज़्यादा पैसे निकाले गए थे। कई जगहों पर वाउचर एंट्री की गई है, लेकिन रसीदें नदारद थीं। कहीं कैशबुक में एंट्री थी, लेकिन मस्टरोल का पता नहीं चला। गांव के कई फंड से लाखों रुपये ग़ैरक़ानूनी तरीक़े से निकाले जाने की बात सामने आई।

पूर्व सरपंच महावीर सिंह इस पूरी कार्यवाही के दौरान ग़ैरमौजूद रहे, लेकिन दोनों अफ़सर कई घंटे तक सभा से हिले तक नहीं। शाम हो चली थी। लगा कि आज काम ख़त्म नहीं हो पाएगा। लेकिन गांव वाले हैंडओवर दिलाने का मन बना चुके थे, तो वहीं दूसरी तरफ अधिकारियों को भी लगने लगा था कि आज उनकी जान छूटने वाली नहीं है।

दिलचस्प बात ये रही कि कई घंटे से चल रही कार्यवाही के बावजूद ये तय नहीं था कि चार्ज सौंपा जा सकेगा या नहीं। क़रीब नौ घंटे बाद यह पाया गया कि चार्ज लेने के लिहाज़ से महत्वपूर्ण ज़्यादातर मुख्य रिकॉर्ड्स का मिलान किया जा चुका है। लेकिन इनमें सामने आई गड़बड़ियों की ज़िम्मेदारी कौन लेगा, यह सवाल अब भी बना हुआ था।

अधिकारी गड़बड़ियों के बारे में कुछ भी लिखित में देने से कतरा रहे थे। लेकिन स्वामी जी बग़ैर लिखित में दिए जाने के लिए चार्ज नहीं लेने की मांग पर अड़े रहे। ग्राम सभा में मौजूद लोगों की तरफ से उन्हें मिलने वाले समर्थन के कारण अधिकारी गड़बड़ियों के बारे में एकनॉलेजमेंट देने के लिए तैयार हो गए।

आख़िरकार रात सवा आठ बजे यानी नौ घंटे से ज़्यादा समय बीतने के बाद नव निवार्चित सरपंच स्वामी जी ने चार्ज लेने की घोषणा की। देश के इतिहास में संभवत: यह पहला मामला है, जब किसी सरपंच को ग्राम सभा की खुली बैठक में चार्ज सौंपा गया हो। बेवल गांव की ये घटना देश के लाखों अन्य गांवों के लिए एक नज़ीर साबित हो सकती है।

बेवल गांव के लोगों ने अपने इस संघर्ष से संदेश दिया है कि पंचायती राज का मक़सद तभी पूरा हो पाएगा, जब पंचायतें चंद लोगों के हाथ की जागीर बनकर न रहें। गांव का विकास और ख़ुशहाली तभी मुमकिन है, जब फैसले लेने की ताक़त वास्तव में उन्हें मिले। स्वराज के इस रास्ते पर बेवल गांव को अभी काफी दूर तक चलना है, लेकिन इसके लिए सबसे महत्वपूर्ण यानी पहला क़दम गांव के लोगों ने बढ़ा दिया है।

समय देने के लिए शुक्रिया। प्रतिक्रियाओं के लिए निवेदन है।

Wednesday, January 20, 2010

चीनी कम, मीठा ज़्यादा

दुकान से एक किलो चीनी के लिए 45 रुपये ढीले करने के बाद शर्मा जी सरकार को गरियाते हुए घर की तरफ मुड़े। “हद है, इतनी महंगी चीनी। क्या कर रही है सरकार? भाव बढ़ते ही जा रहे हैं।“ फिर पड़ोस के गुप्ता जी ने समझाया कि जनाब आख़िर सस्ता क्या है। दाल, आटा, दूध, मकान का किराया, बस का भाड़ा, बच्चों की फीस, डॉक्टर की कंसलटेशन, सब महंगे हैं। लेकिन फिर कमबख़त चीनी शर्मा जी को सबसे ज़्यादा परेशान की हुई थी।

घर पहुंचे। चाय की तलब मिटाने के लिए पत्नी को बोलने ही वाले थे कि आवाज़ पहुंची- “जल्दी तैयार हो जाइए, अस्थाना जी के बेटे की शादी की पार्टी के लिए लेट हो जाएंगे।“ अब मुद्दा चीनी नहीं, पार्टी था। वेन्यू पर पहुंचे। खाना शुरु हो चुका था। आइटमों की कमी नहीं थी। किसिम-किसिम की तरकारी, दालें, चटनी, चाइनीज़ आइटम और लास्ट में स्वीट डिश के नाम पर रबड़ी-जलेबी, गुलाब जामुन और आइसक्रीम भी थी।

खाना खाने के बाद स्वीट डिश के काउंटर पर गुप्ता जी फिर मिल गए। चीनी का मुद्दा भी लौट आया। “भई, मेरे हिसाब से तो इसके लिए किसान ही ज़िम्मेदार है। गन्ना उगाया ही नहीं इस बार। चीनी होगी कहां से।“ आगे की बात उनके मुंह में पहुंचे गुलाब जामुन ने रोक दी। प्लेट में रबड़ी-जलेबी लिए शर्मा जी ने कहा- “भई सरकार भी तो कोई चीज़ होती है। केंद्र और राज्य में तालेमेल नहीं हैं। एक सरकार आयात को छूट देती है, दूसरी सख़्त कर देती है।“

तीसरी ज़िम्मेदारी जमाखोरों पर थोपी गई। माना गया कि चीनी की कोई कमी नहीं है, लेकिन सरकार जमाख़ोरों पर लगाम नहीं लगा पा रही। इसी क्रम में सूखे का भी नंबर आया। पूरी बहस के बीच कई राउंड स्वीट डिश और आइसक्रीम चलती रही, जो बहस करने वालों को ईंधन मुहैया करा रही थीं। ख़ाना ख़तम हुआ, मेहमान घरों की तरफ लौटने लगे। लेकिन मुद्दा अब भी वहीं का वहीं कि- महंगी चीनी के लिए ज़िम्मेदार कौन?

क्या सरकार, चीनी मिलें, जमाख़ोरी, किसान और सूखा जैसे कारक ही चीनी की क़ीमतें तय कर रही हैं? इस चीनी का उपभोग करने वालों, यानी हमारी क्या इसमें कोई भूमिका नहीं है? अर्थशास्त्र का सिंपल सा फार्मूला है डिमांड और सप्लाई का। डिमांड ज़्यादा- सप्लाई कम, तो क़ीमत ऊपर और उल्टा हुआ तो क़ीमत नीचे। तो भई डिमांड तो हम ही लोग तय कर रहे हैं ना?

अब सवाल उठता है कि चीनी की डिमांड भला कैसे कम की जा सकती है, ये तो एसेंशियल टाइप आइटम है। बात ठीक है, लेकिन कुछ तो कंट्रोल किया ही जा सकता है। अब भला शादी-ब्याह में तीन-तीन स्वीट डिश आइटम परोसने का क्या ज़रूरत है? और क्या खाने वालों ने कभी इस बात को महसूस किया कि चीनी की इस बर्बादी की मार आख़िरकार उन्हीं को झेलनी पड़ेगी?

ऐसा नहीं है कि सरकार इसमें कुछ भी नहीं कर सकती। देश में एक वक़्त जब खाद्यान्न संकट पैदा हुआ था, तो तब के प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने देशवासियों से एक ही टाइम खाना खाने की अपील की थी। अगर सरकार ये मानती है कि देश में चीनी की कमी है, तो फिर शादी-पार्टियों में स्वीट डिश परोसने पर रोक लगा देनी चाहिए। हालांकि इसका असर तभी हो सकेगा जब रोक के साथ-साथ इसे ईमानदारी से इम्लीमेंट भी किया जाए।

बात चीनी की हो या चीन की। किसी को भी भाव देना बंद कर दो, उसका भाव अपने आप गिर जाएगा। और अगर ऐसा न कर सको, तो कम से कम उसे बढ़ावा देना तो सरासर ग़लत है। उपभोग पर न सही, दिखावे पर तो लगाम लगाई ही जा सकती है। आख़िर कब तक दिखावे के नाम पर हम अपने ही मुद्दों को नज़रअंदाज़ करते रहेंगे? चपत लगने से अच्छा है कि ख़पत पर कंट्रोल करें। क्यों शर्मा जी?

Disclaimer- Sharma ji and other names are imaginary and have not been used to defame any person or any group of society.

Friday, April 17, 2009

चलो चलें एक गांव...

अपना गांव तो हर किसी को प्यारा लगता है, लेकिन देश में एक गांव ऐसा है जिसे देखकर अपना गांव भी उसी तरह बनाने का मन करता है। ये गांव है महाराष्ट्र के अहमद नगर ज़िले में। नगर (अहमद नगर को स्थानीय लोग नगर कहते हैं) से कल्याण जाने वाली सड़क पर 10 किलोमीटर तक चलते हुए एक रास्ता इस गांव की तरफ मुड़ता है। वह मोड़ पांच किलोमीटर और चलाकर उस गांव तक पहुंचा देता है।

गांव का नाम है हिवरे बाज़ार। लोग बताते हैं कि किसी ज़माने में यहां घोड़ों का बाज़ार लगता था। इस बाज़ार से ख़रीदे गए घोड़ों का इस्तेमाल ख़ास तौर पर जंग के लिए किया जाता है। अब बाज़ार सिर्फ गांव के नाम में है, गांव में नहीं। ये अलग बात है कि ये गांव उस वक़्त भी इतना मशहूर नहीं रहा होगा, जितना अब है।

हिवरे बाज़ार देश के लाखों गांवों की तरह एक छोटा सा गांव है, जिसमें क़रीब ढ़ाई सौ परिवार रहते हैं। लेकिन कई मामलों में ये देश के गिने-चुने गांव में से एक है। गांव की सड़कें सीमेंटेड हैं। साफ-सफाई के मामले में तो ये गांव शहरों की पॉश कॉलोनियों से भी बेहतर दिखता है। गांव के सभी घर एक रंग में रंगे हैं। गांव की पहाड़ी से देखने पर ये रेगिस्तान में जज़ीरे की तरह दिखाई पड़ता है।

गांव जितना ख़ूबसूरत है, उतना ही संपन्न भी। गांव में सिर्फ तीन परिवार ग़रीबी की रेखा के नीचे गुज़र करते हैं, छ परिवारों को छोड़कर सभी के पास अपने खेत हैं। गांव की प्रति व्यक्ति आय 28 हज़ार रुपये सलाना है। यानी एक परिवार हर महीने औसतन दस हज़ार रुपये से ज़्यादा कमाता है।

लेकिन आज से बीस साल (1989) से पहले तक हालात ऐसे नहीं थे। गांव की अगर कोई पहचान थी, तो सिर्फ शराबियों और जुआरियों के गढ़ के रूप में। आपसी विवाद कई बार ख़ूनी रूप भी ले चुके थे। सरकारी अधिकारियों के लिए हिवरे बाज़ार पनिशमेंट पोस्टिंग के तौर पर जाना जाता था।

इन सभी बुराइयों के मूल में गांव की सबसे बड़ी समस्या थी। कम बारिश वाले क्षेत्रों में आने की वजह से हिवरे बाज़ार गांव कई बार सूखे की मार झेल चुका था, जिनमें 1982 में पड़ा भीषण अकाल भी शामिल है। गांव में औसतन 400 मिलीमीटर तक ही बारिश होती है। खेत सूखने से गांव के लोगों ने रोज़गार की तलाश में मुंबई-पुणे जैसे महानगरों का रुख करना शुरु कर दिया।

बदलाव की बयार बहनी शुरु हुई 1989 में। गांव के लोगों ने पाया कि उनकी समस्याओं का हल उन्हें ही तलाशना होगा। गांव के एक पढ़े-लिखे नौजवान पोपटराव पवार को सरपंच बनाने के लिए लोगों ने राज़ी किया। एम.कॉम. कर चुके पोपटराव क्रिकेट के अच्छे खिलाड़ी थे, और पुणे यूनिवर्सिटी की तरफ से राष्ट्रीय स्तर की क्रिकेट खेल चुके थे।

पोपटराव की अगुवाई में 26 जनवरी 1989 को हिवरे बाज़ार ग्राम सभा की पहली बैठक हुई। गांव के लोगों ने समस्याओं को प्राथमिकता के आधार पर हल करने का फैसला किया। सबसे पहला फैसला गांव के स्कूल के बारे में किया गया। चौथी तक चलने वाले गांव के सरकारी प्राथमिक स्कूल की इमारत जर्जर हो चुकी थी।

गांव के लोगों ने बिना किसी सरकारी मदद के अपने दम पर स्कूल की नई इमारत खड़ी कर दी। गांव के 18 लोगों ने स्कूल के लिए अपनी ज़मीनें छोड़ दीं। स्कूल में टीचर नहीं थे, तो गांव के पढ़े-लिखे लोगों ने बिना किसी पारश्रमिक के बच्चों को पढा़ना शुरु किया। उसी स्कूल में आज दसवीं कक्षा तक की पढ़ाई होती है, और स्कूल में पढ़न वाले चालीस फीसदी बच्चे दूसरे गांवों से आते हैं।

गांव का दूसरा सबसे अहम फैसला लिया गया पानी की कमी को दूर करने का। 1995 में महाराष्ट्र सरकार ने आदर्श ग्राम योजना शुरु की। हिवरे बाज़ार उन तीन गांवों में से एक था, जहां इस योजना के तहत जल संरक्षण के लिए काम किया जाना था। गांव के लोगों ने पांच साल की इस योजना को सिर्फ दो साल में पूरा कर दिखाया।

बारिश के पानी को बहने से रोकने के लिए गांव के पहाड़ी क्षेत्र में वाटर शेड का काम गांववालों ने मुफ्त श्रमदान करके किया। गांव में वनविभाग की ज़मीन एक समय गांव के लोगों ने ही उजाड़ दी थी, उसी ज़मीन पर लोगों ने इस बार ख़ुद पेड़ लगाए जो बारिश के जमा पानी से फलने-फूलने लगे। गांव के लोगों ने ये भी तय किया वो जंगल में अपने जानवर नहीं चराएंगे और ना ही पेड़ की लकड़ियां काटेंगे।

इन सारी क़वायदों से गांव में ज़मीन के नीचे का जलस्तर काफी बढ़ गया। लेकिन इस पानी को सही तरीके से इस्तेमाल करने के लिए ग्राम सभा ने कुछ और फैसले किए। खेती के लिए बोरवेल से पानी खींचने की मनाही कर दी गई। सिंचाई का काम कुओं से मोटर के ज़रिये पानी खींचकर किया जाने लगा।

पानी के सही इस्तेमाल के लिए एक और महत्वपूर्ण फैसला ग्राम सभा में लिया गया। ज़्यादा पानी की ज़रूरत वाली फसलों जैसे गन्ना और केला नहीं उगाने का निर्णय लिया गया। इसकी जगह ज्वार, बाजरा, प्याज़ और कैश क्रॉप्स (हरी सब्ज़ियां) उगाने पर सहमति हुई। आज गांव के ज़मीन में इतना पानी है कि अगर किसी साल बारिश न भी हो, तो खेत सूखे नहीं रहेंगे।

पानी की समस्या दूर होने से गांव की तस्वीर बदलने लगी। रोज़गार के लिए शहरों में पलायन करने वाले लोगों ने गांव लौटना शुरु कर दिया, और खेतों में काम करने लगे। लोगों ने पशुपालन पर भी ज़ोर दिया और दुग्ध उत्पादन में उल्लेखनीय बढ़ोतरी दर्ज की गई। गांव में ख़ुशहाली लौटने से ज़मीन की क़ीमत कई गुना बढ़ गई।

गांव के कुछ लोग बढ़ी क़ीमतों में अपनी ज़मीने बेचना चाहते थे। लेकिन ग्राम सभा ने इस बारे में एक महत्वपूर्ण फैसला लिया। हिवरे बाज़ार की ज़मीन को गांव से बाहर के लोगों को बेचना निषेध कर दिया गया। जम्मू-कश्मीर में बाद कदाचित ये दूसरी ऐसी जगह होगी जहां अघोषित रूप से भारतीय संविधान की धारा 370 लागू है।

सामाजिक विकास और महिला सशक्तिकरण के क्षेत्र में भी ग्राम सभा ने कई अहम फैसले लिए। गांव में शादी से पहले एचआईवी टेस्ट कराना ज़रूरी कर दिया गया। ये फैसला गांव के लोगों ने उसी वक़्त (2003 में) ले लिया था, जब देश की किसी भी सरकार ने इस बारे में सोचा भी नहीं था। गांव के हर घर के बाहर दीवार पर महिला का नाम पुरुष से ऊपर लिखा हुआ है।

आर्थिक और सामाजिक रूप से बेहतर होने के बाद गांव अपराध मुक्त हो गया है। जिस गांव में आए दिन ख़ून-खराबा हुआ करता था, उस गांव का नाम क़रीब दस साल से किसी अपराध रजिस्टर में दर्ज नहीं है। गांव में शराब, बीड़ी, सिगरेट और गुटखे ख़रीदने-बेचने पर पाबंदी है। प्लास्टिक बैग का इस्तेमाल भी नहीं किया जाता है।

गांव की इतना महिमा-मंडन शायद आपको थोड़ा बोझिल लग रहा होगा, लेकिन मैंने ऐसा करना इसलिए ज़रूरी समझा क्योंकि कदाचित ऐसे ही गांव का सपना हर कोई देखता है। और यक़ीन मानिए इस सपने को साकार करना बहुत मुश्किल नहीं है। इसके लिए योजनाएं 6 लाख गांवों के लिए एक ही जगह पर एकसाथ नहीं, बल्कि एक-एक गांव के लिए अलग-अलग बनानी होंगी।

इन योजनाओं को बनाने की ज़िम्मेदारी गांव के लोगों यानी ग्राम सभाओं को देनी होंगी औऱ योजनाओं को लागू करने के लिए फंड भी सीधे उन्हीं को देना होगा। स्वराज का ये मॉडल सिर्फ गांवों में ही नहीं शहरों में भी लागू किया जा सकता है, जहां समान ताक़त मुहल्ले के लोगों को देनी होंगी। लेख पढ़ने के लिए समय देने का शुक्रिया।

विनोद अग्रहरि

Saturday, February 21, 2009

मंदी से हारे दुनिया से लड़ने वाले



एक और अख़बार छपना बंद हो गया, एक और न्यूज़ चैनल बिक गया। कुछ वक़्त पहले जब इन्होंने शुरुआत की थी, तो दुनिया से लड़ने का दंभ भर रहे थे। समाज से, भ्रष्टाचार से, आतंकवाद से, संप्रदायवाद से... लेकिन आज ये सभी परास्त हो रहे हैं। किससे... मंदी से। मंदी के आगे ये लड़ाके बेबस हैं। कलम की धार कमज़ोर पड़ जाती है, दिमाग़ काम करना बंद कर देता है जब बाज़ार में मुनाफे का गणित गड़बड़ा जाता है।

हाल की कुछ घटनाएं उन थोड़े-बहुत लोगों का भ्रम दूर करने के लिए काफी हैं जिन्हें अब भी लगता है कि पत्रकारिता एक मिशन है, व्यवसाय नहीं। दुनिया बदल गई है, पत्रकारिता का स्वरूप भी बदल गया है। आज न तो बिना मुनाफे के कोई मीडिया संगठन चल सकता है, और न ही बिना पैसे के कोई पत्रकार काम करना चाहेगा।

तो क्या अख़बार या चैनल चलाने और एक दुकान चलाने में कोई फर्क़ रह गया है? कोई मालिकों से पूछे कि अगर मुनाफा कमाना ही मक़सद था, तो चैनल या अख़बार को ही धंधा क्यों बनाया? या फिर वो पत्रकार जवाब दें जिन्होंने अच्छा पैसा कमाने और ऐशोआराम की ज़िंदगी जीने के लिए पत्रकारिता को चुना।

इस बात में कोई शक़ नहीं कि हर संगठन की गाड़ी मुनाफे के इंजन से चलती है। मुनाफा हो, अच्छी बात है। कंपनी का भला होगा, उसमें काम करने वालों लोगों की ज़िंदगी बेहतर होगी। लेकिन क्या मुनाफा ही मीडिया संगठनों का एकमात्र उद्देश्य होना चाहिए? जब दूसरों की दुकानें बंद हो रही थी, लोग बेनौकरी हो रहे थे, तब तो ख़ूब शोरगुल मचाया गया। अब अपने कर्मचारियों की चिंता क्या मीडिया संगठनों को है?

अख़बार तब भी छप रहे थे, जब आपातकाल लगा था। अख़बारों को सरकारी विज्ञापन मिलने बंद हो गए थे, लेकिन कलम चलती रही। आज तो सारा खेल बाज़ारवाद का है। चाहे चैनल हों, अख़बार हों या फिर उनमें काम करने वाले। चैनल या अख़बार को मुनाफा कम होगा, तो छंटनी, नुकसान होगा तो बंदी। पत्रकारों के लिए जहां अच्छा पैसा, वहां नौकरी।

लेकिन इन सबके बावजूद सैकड़ों न्यूज़ चैनल आ रहे हैं। कई अख़बार शुरु हो रहे हैं। इनका मक़सद भी दूसरों से अलग नहीं है। इनकी आड़ में उद्योगपतियों के बाक़ी व्यवसाय चमकेंगे। तो फिर हम किस पत्रकारिता की बात करते हैं? क्यों हम कहते हैं कि मीडिया लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है? क्या बाक़ी तीन स्तंभ भी मुनाफे के लिए चलते हैं?

विनोद अग्रहरि

Friday, January 30, 2009

देशभक्तों को शुभकामना

आप सभी पढ़ने वालों को गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं। शुभकामना देना दुनिया का सबसे आसान काम है। आमतौर लोग सिर्फ लेना जानते हैं, देना नहीं। लेकिन बात जब शुभकामना देने की हो, तो लोग दिल खोल कर देते हैं। मैसेज पे मैसेज, सड़कों-चौराहों पर लगी होर्डिंग। ज़्यादातर लोग इन शुभकामनाओं के ज़रिये अपना उल्लू सीधा करते हैं। ग़ौर कीजिए, पिछले साल में होली, पंद्रह अगस्त, दीपावली, ईद, क्रिसमस और नए साल पर कितने लोगों ने आपको शुभकामनाएं दी होंगी। क्या वो सभी आपके शुभचिंतक ही हैं, या फिर कितने लोग दिल से शुभकामनाएं देते हैं, ये भी तय करना मुश्किल है।

शुभकामना संदेश की ताक़त को सबसे ज़्यादा भुना रहे हैं नेता। सड़कों पर लगी होर्डिंग्स पर इनके शुभकामना संदेश कुछ इस तरह लिखे होते हैं- आप सभी को दीपावली, ईद, छठ पर्व, क्रिसमस और नए साल की ढेरों शुभकामनाएं। ध्यान दीजिएगा क्या वाकई इन्होंने ऐसा कोई काम किया है, जिससे आपकी होली-दीपावली शुभ हो सके। हां मगर, एक शुभकामना संदेश से उनके कई हित सध गए। समाज के सभी वर्गों को बधाई देकर वो सेक्यूलर हो गए। दीपावली से नए साल तक अब यानी कम दो-तीन महीनों तक संदेश की प्रांसगिकता बनी रहेगी, सो बोर्ड बदलवाने की ज़रूरत नहीं। होर्डिंग के ऊपर लगी पार्टी प्रमुखों की तस्वीरों से उन्होंने अपनी स्वामीभक्ति भी दर्ज करा दी।

न तो इस तरह की होर्डिंग्स पर नगम निगम को कोई टैक्स चुकाया जाता है, और न ही निगम इन अवैध होर्डिंग्स को हटाने में दिलचस्पी रखता है। अब भले ही आप इनकी शुभकामनाएं लेना न चाहें क्योंकि आपको इन शुभकामनाओं से कुछ मिलना तो है नहीं। लेकिन फिर भी नेताओं की होर्डिंग्स चौराहों पर लगी रहेंगी, क्योंकि शुभकामना देने उनका क्या जा रहा है।

गणतंत्र दिवस पर भी शुभकामनाओं की बौछार हुई। लोगों ने एक-दूसरे को देशभक्ति से भरे संदेश भेजे। देशभक्ति भी सेक्यूलरिज़म की तरह बड़ा डिप्लोमैटिक टाइप शब्द है। गणतंत्र दिवस पर मैं अपनी छत पर तिरंगा नहीं फहरा पाया। कुछ लोगों की नज़रों में देशभक्त न कहलाने का एक क्राइटेरिया मैंने पूरा कर लिया। मैंने किसी को गणतंत्र दिवस का एसएमएस नहीं किया। शायद इसलिए भी मैं देशभक्त नहीं। देशभक्ति है क्या और देशभक्त कौन है, ये तय करना बड़ा अजीब है।

चीन ने अपने देशवासियों से कहा है कि मंदी के दौर में वो पैसे ख़ूब ख़र्च करें। संकट की इस घड़ी में जो नागरिक अपनी सारी कमाई ख़र्च करेगा, वही देशभक्त है। हमारे यहां देशभक्ति के मानदंड कभी इस तरह के नहीं रहे। 26 जनवरी जैसे दिनों को हम शहीदों को कुछ देर तक शहीदों की याद में रोमांचित होकर हम ख़ुद को देशभक्त मानने लगते हैं। देशभक्त होने का ये बड़ा आसान और प्राकृतिक तरीका है। इस लिहाज़ से हर देशवासी ख़ुद को देशभक्त कह सकता है।

इनमें वो देशभक्त भी शामिल हैं जो कर की चोरी करते हैं, ग़रीबों का राशन खा जाते हैं, वन्य जीवों की हत्या करते हैं, बच्चों का बचपन बर्बाद करते हैं, जंगली लकड़ियों की तस्करी करते, बिजली की चोरी करते हैं और ग़ैरप्रांतीय-ग़ैरमहज़बी-ग़ैरजातीय लोगों से भेदभाव करते हैं हैं। इन सभी कामों से क्या देश या देश की छवि को नुकसान नहीं होता। देश को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से नुकसान पहुंचाने वाले देशभक्त कैसे हो सकते हैं। दरअसल देशभक्त होना उतना आसान काम नहीं जितना हम लोग समझते हैं।

देशभक्त होने के लिए देश को सबसे ऊपर रखना होगा। अपने छोटे-छोटे हितों के बारे में सोचने से पहले देश पर होने वाले उसके असर को सोचना होगा। ऐसा करना हर देशभक्त के बस की बात नहीं। इसके लिए हिम्मत चाहिए, त्याग चाहिए। सिद्धांत की ये बातें करने में काफी मुश्किल हैं, लेकिन कम से कम फंडा तो क्लियर होना ही चाहिए। ताकि हमें ये तय करने में दिक़्क़त न हो कि क्या हम वाकई देशभक्त कहलाने के लायक हैं। सच्चा देशभक्त ही देश और देशवासियों का शुभेच्छु हो सकता है, और तब शुभकामना दिए बग़ैर भी लोगों का शुभ हो सकेगा।

आपका विनोद अग्रहरि

Sunday, December 21, 2008

फिल्म सिटी में चाय बनी चुनौती

भाई साहब क्या आप चाय की दुकान ढूढ़ रहे हैं? फिल्म सिटी में दोस्त के साथ भटकता देख एक अजनबी ने पूछा। हमारे जवाब देने से पहले ही उसे अपनी बात आगे बढ़ा दी। मानो उसे पक्का यक़ीन था कि वो सही आदमी से सही सवाल पूछ बैठा है। वो हमें चाय की दुकान का पता समझाने लगा। मैं उसकी बात इतनी ध्यान से सुन रहा था जैसे वो किसी ख़जाने का नक्शा बता रहा हो। क़रीब 15 मिनट तक उसके बताए रास्ते पर चलते हुए हमें वो ख़ज़ाना मिल गया। चाय की वो दुकान एक प्लॉट के अंदर थी, जहां निर्माण कार्य चल रहा था और जिसके बाहर लगा गेट ये सुनिश्चित करने के लिए बंद रखा गया था कि पुलिसवालों की नज़र इसपर न पड़ जाए।

नोएडा फिल्म सिटी में पुलिस ने इस तरह की सारी दुकानें हटवा दी हैं, जहां लोग चाय, सोट्टे या गुटखे की तलब मिटाने के लिए आया करते थे। इनके अलावा सड़क के किनारे लगने वाली खाने-पीने की ठेलेनुमा दुकानें भी अब फिल्म सिटी में नहीं दिखाई दे रही हैं। कुछ दिनों पहले तक फिल्म सिटी में इस तरह की क़रीब 50 दुकानें चलती थीं, जिनके आसपास हर वक़्त मीडियाकर्मियों का मजमा लगा रहता था। ऐसी ही एक दुकान चलाने वाला गुलमोहर भी आजकल बेरोज़गार हो गया है। कहता है कि पुलिसवाले अब दुकान नहीं लगने दे रहे। चोरी-छिपे सामान बेचते भी देख लिया तो मारते हैं।

ये सच है कि फिल्म सिटी में चलने वाली ये दुकानें अनाधिकृत, अवैध, अतिक्रमण करने वाली यानी हर तरह से ‘अ’ सर्टिफिकेट वाली थीं। लेकिन अब तक मज़े से चल रही इन दुकानों को अचानक हटवाने की क्या ज़रूरत आ गई। इस बारे में मैंने नोएडा के एसपी सिटी अशोक त्रिपाठी से पूछा तो उनका जवाब था कि ऐसा सुरक्षा के मद्देनज़र किया गया है। उनके मुताबिक फिल्म सिटी में चलने वाले न्यूज़ चैनल आतंकवादियों के निशाने पर हैं और इस लिहाज़ से सड़क के किनारे लगने वाले ठेले आतंकियों की मददगार साबित हो सकते हैं।

पुलिस का ये क़दम तकनीकी तौर पर सही मालूम पड़ता है, लेकिन इससे प्रभावित हुए लोग कुछ और ही कहानी बयां करते हैं। चाय का ठेला लगाने वाला त्रिपुरारी कहता है कि ये सब उस चैनल के प्रोगाम के चलते हुआ है। त्रिपुरारी स्टार प्लस पर हाल ही में शुरु हुए किरण बेदी के प्रोगाम आपकी कचहरी की बात कर रहा था। इसकी शूटिंग कुछ महीने पहले फिल्म सिटी के एक स्टूडियो में हुई थी, जिसमें नोएडा के पुलिस अधिकारी और आम लोग मौजूद थे। त्रिपुरारी कहता है कि शो में फिल्म सिटी का एक चाय बेचने वाला भी मौजूद था, जिसने पुलिसवालों पर पैसे वसूलने के आरोप लगाए। इसके बाद पुलिस की ख़ूब किरकिरी हुआ, और नतीजे में सबकी दुकानें उठवा दी गईं।

देखा जाए तो इस क़दम से इन चायवालों का ही नुकसान नहीं हो रहा, दुकानें हटवाने वाली पुलिस को भी चपत लगी है। दुकानदारों के मुताबिक पुलिसवाले हर दुकान से रोज़ाना 20 रुपये 200 रुपये की वसूली करते थे। फिल्मसिटी की छोटी-बड़ी लगभग 50 अवैध दुकानों से महीने की वसूली लाखों तक पहुंच जाती थी। मगर ये रक़म थाने तक नहीं पहुंच पाती थी, चौकी में ही बंट जाती थी। एसएचओ, सीओ और उससे ऊपर के पुलिसवालों को वैसे भी इनसे कुछ नहीं मिल रहा था। यही वजह है कि उन्होंने अपने ऊपर से बदनामी का दाग़ धो लिया। वरना पूरे नोएडा से इस तरह की दुकानें न हटवा दी जातीं।

बहरहाल चाय के इस चक्कर में उन चयेड़ियों का भी नुकसान हो रहा है, जिनके लिए चाय सिर्फ पीने की चीज़ नहीं है। ऐसा होता तो ठंड में ठिठुरते हुए बाहर निकलने से अच्छा एसी कैंटीन में चाय पीकर ख़ुश नहीं हो जाते। कुछ लोगों को बाहर की चाय ज़्यादा टेस्ट दे सकती है लेकिन इससे बड़ी हक़ीक़त ये है कि बाक़ी जगहों की तरह ही फिल्म सिटी में भी चाय के ठेलों पर लोग सिर्फ चाय पीने के लिए ही नहीं जाते। चाय और सोट्टे के बीच दफ्तर की राजनीति से लेकर मंगल पर पानी के सबूतों तक की चर्चा होती है, जो शायद नो स्मोकिंग ज़ोन कैंटीन की चिकनी कुर्सियों पर बैठकर मुमकिन नहीं है।

मगर अब इस बहाने कैंटीन चलाने वाले ख़ुश हैं। शाम को लिट्टी, समोसा खाने के लिए बाहर जाने वाले मीडियाकर्मियों को अब टोकन लेकर कैंटीन की मेन्यू के हिसाब से ही चलना पड़ रहा है। नतीजतन इन कैंटीनों में मोनोपोली टाइप सिचुएशन हो गई है। लेकिन जो लोग समझौता करने में सहज नहीं हैं, वो रेगिस्तान में जज़ीरा तलाशने के लिए निकल ही पड़ते हैं। ऐसा ही एक शख़्स हमें दिखा जब हम चाय पीकर लौट रहे थे, और हमें उस सिलसिले को आगे बढ़ाने का मौका मिल गया जो हमारे लिए उस अजनबी ने शुरु किया था। चाय की दुकान ढूढ़ने और चाय पीने में उतनी ख़ुशी नहीं हुई थी, जितनी उस शख़्स को पता बताकर हो रही थी।

विनोद अग्रहरि