Wednesday, January 20, 2010

चीनी कम, मीठा ज़्यादा

दुकान से एक किलो चीनी के लिए 45 रुपये ढीले करने के बाद शर्मा जी सरकार को गरियाते हुए घर की तरफ मुड़े। “हद है, इतनी महंगी चीनी। क्या कर रही है सरकार? भाव बढ़ते ही जा रहे हैं।“ फिर पड़ोस के गुप्ता जी ने समझाया कि जनाब आख़िर सस्ता क्या है। दाल, आटा, दूध, मकान का किराया, बस का भाड़ा, बच्चों की फीस, डॉक्टर की कंसलटेशन, सब महंगे हैं। लेकिन फिर कमबख़त चीनी शर्मा जी को सबसे ज़्यादा परेशान की हुई थी।

घर पहुंचे। चाय की तलब मिटाने के लिए पत्नी को बोलने ही वाले थे कि आवाज़ पहुंची- “जल्दी तैयार हो जाइए, अस्थाना जी के बेटे की शादी की पार्टी के लिए लेट हो जाएंगे।“ अब मुद्दा चीनी नहीं, पार्टी था। वेन्यू पर पहुंचे। खाना शुरु हो चुका था। आइटमों की कमी नहीं थी। किसिम-किसिम की तरकारी, दालें, चटनी, चाइनीज़ आइटम और लास्ट में स्वीट डिश के नाम पर रबड़ी-जलेबी, गुलाब जामुन और आइसक्रीम भी थी।

खाना खाने के बाद स्वीट डिश के काउंटर पर गुप्ता जी फिर मिल गए। चीनी का मुद्दा भी लौट आया। “भई, मेरे हिसाब से तो इसके लिए किसान ही ज़िम्मेदार है। गन्ना उगाया ही नहीं इस बार। चीनी होगी कहां से।“ आगे की बात उनके मुंह में पहुंचे गुलाब जामुन ने रोक दी। प्लेट में रबड़ी-जलेबी लिए शर्मा जी ने कहा- “भई सरकार भी तो कोई चीज़ होती है। केंद्र और राज्य में तालेमेल नहीं हैं। एक सरकार आयात को छूट देती है, दूसरी सख़्त कर देती है।“

तीसरी ज़िम्मेदारी जमाखोरों पर थोपी गई। माना गया कि चीनी की कोई कमी नहीं है, लेकिन सरकार जमाख़ोरों पर लगाम नहीं लगा पा रही। इसी क्रम में सूखे का भी नंबर आया। पूरी बहस के बीच कई राउंड स्वीट डिश और आइसक्रीम चलती रही, जो बहस करने वालों को ईंधन मुहैया करा रही थीं। ख़ाना ख़तम हुआ, मेहमान घरों की तरफ लौटने लगे। लेकिन मुद्दा अब भी वहीं का वहीं कि- महंगी चीनी के लिए ज़िम्मेदार कौन?

क्या सरकार, चीनी मिलें, जमाख़ोरी, किसान और सूखा जैसे कारक ही चीनी की क़ीमतें तय कर रही हैं? इस चीनी का उपभोग करने वालों, यानी हमारी क्या इसमें कोई भूमिका नहीं है? अर्थशास्त्र का सिंपल सा फार्मूला है डिमांड और सप्लाई का। डिमांड ज़्यादा- सप्लाई कम, तो क़ीमत ऊपर और उल्टा हुआ तो क़ीमत नीचे। तो भई डिमांड तो हम ही लोग तय कर रहे हैं ना?

अब सवाल उठता है कि चीनी की डिमांड भला कैसे कम की जा सकती है, ये तो एसेंशियल टाइप आइटम है। बात ठीक है, लेकिन कुछ तो कंट्रोल किया ही जा सकता है। अब भला शादी-ब्याह में तीन-तीन स्वीट डिश आइटम परोसने का क्या ज़रूरत है? और क्या खाने वालों ने कभी इस बात को महसूस किया कि चीनी की इस बर्बादी की मार आख़िरकार उन्हीं को झेलनी पड़ेगी?

ऐसा नहीं है कि सरकार इसमें कुछ भी नहीं कर सकती। देश में एक वक़्त जब खाद्यान्न संकट पैदा हुआ था, तो तब के प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने देशवासियों से एक ही टाइम खाना खाने की अपील की थी। अगर सरकार ये मानती है कि देश में चीनी की कमी है, तो फिर शादी-पार्टियों में स्वीट डिश परोसने पर रोक लगा देनी चाहिए। हालांकि इसका असर तभी हो सकेगा जब रोक के साथ-साथ इसे ईमानदारी से इम्लीमेंट भी किया जाए।

बात चीनी की हो या चीन की। किसी को भी भाव देना बंद कर दो, उसका भाव अपने आप गिर जाएगा। और अगर ऐसा न कर सको, तो कम से कम उसे बढ़ावा देना तो सरासर ग़लत है। उपभोग पर न सही, दिखावे पर तो लगाम लगाई ही जा सकती है। आख़िर कब तक दिखावे के नाम पर हम अपने ही मुद्दों को नज़रअंदाज़ करते रहेंगे? चपत लगने से अच्छा है कि ख़पत पर कंट्रोल करें। क्यों शर्मा जी?

Disclaimer- Sharma ji and other names are imaginary and have not been used to defame any person or any group of society.

3 comments:

  1. बढिया है. भाव देने से ही तो भाव खाते हैं लोग..

    ReplyDelete
  2. किसी को भी भाव देना बंद कर दो, उसका भाव अपने आप गिर जाएगा-सही कहा.

    ReplyDelete
  3. देश में कुछ लोगो को ,यदि किसी दिन चाय पीने में शक्कर की जगह गुड का प्रयोग करना पड़ जाए तो वो उस दिन भगत सिंह की कुर्बानी को भी छोटा समझने लगते हैं | जिनमे हमारे आलाकमान ,हुक्मरान,टाइप -टाइप के तथाकथित बुद्धिजीवी नादान इस दौड़ में सबसे आगे होंगे | शानदार लेख विवेक मिश्र media.vivek@gmail.com, www.jungkalamki.blogsot.com

    ReplyDelete