Friday, April 17, 2009

चलो चलें एक गांव...

अपना गांव तो हर किसी को प्यारा लगता है, लेकिन देश में एक गांव ऐसा है जिसे देखकर अपना गांव भी उसी तरह बनाने का मन करता है। ये गांव है महाराष्ट्र के अहमद नगर ज़िले में। नगर (अहमद नगर को स्थानीय लोग नगर कहते हैं) से कल्याण जाने वाली सड़क पर 10 किलोमीटर तक चलते हुए एक रास्ता इस गांव की तरफ मुड़ता है। वह मोड़ पांच किलोमीटर और चलाकर उस गांव तक पहुंचा देता है।

गांव का नाम है हिवरे बाज़ार। लोग बताते हैं कि किसी ज़माने में यहां घोड़ों का बाज़ार लगता था। इस बाज़ार से ख़रीदे गए घोड़ों का इस्तेमाल ख़ास तौर पर जंग के लिए किया जाता है। अब बाज़ार सिर्फ गांव के नाम में है, गांव में नहीं। ये अलग बात है कि ये गांव उस वक़्त भी इतना मशहूर नहीं रहा होगा, जितना अब है।

हिवरे बाज़ार देश के लाखों गांवों की तरह एक छोटा सा गांव है, जिसमें क़रीब ढ़ाई सौ परिवार रहते हैं। लेकिन कई मामलों में ये देश के गिने-चुने गांव में से एक है। गांव की सड़कें सीमेंटेड हैं। साफ-सफाई के मामले में तो ये गांव शहरों की पॉश कॉलोनियों से भी बेहतर दिखता है। गांव के सभी घर एक रंग में रंगे हैं। गांव की पहाड़ी से देखने पर ये रेगिस्तान में जज़ीरे की तरह दिखाई पड़ता है।

गांव जितना ख़ूबसूरत है, उतना ही संपन्न भी। गांव में सिर्फ तीन परिवार ग़रीबी की रेखा के नीचे गुज़र करते हैं, छ परिवारों को छोड़कर सभी के पास अपने खेत हैं। गांव की प्रति व्यक्ति आय 28 हज़ार रुपये सलाना है। यानी एक परिवार हर महीने औसतन दस हज़ार रुपये से ज़्यादा कमाता है।

लेकिन आज से बीस साल (1989) से पहले तक हालात ऐसे नहीं थे। गांव की अगर कोई पहचान थी, तो सिर्फ शराबियों और जुआरियों के गढ़ के रूप में। आपसी विवाद कई बार ख़ूनी रूप भी ले चुके थे। सरकारी अधिकारियों के लिए हिवरे बाज़ार पनिशमेंट पोस्टिंग के तौर पर जाना जाता था।

इन सभी बुराइयों के मूल में गांव की सबसे बड़ी समस्या थी। कम बारिश वाले क्षेत्रों में आने की वजह से हिवरे बाज़ार गांव कई बार सूखे की मार झेल चुका था, जिनमें 1982 में पड़ा भीषण अकाल भी शामिल है। गांव में औसतन 400 मिलीमीटर तक ही बारिश होती है। खेत सूखने से गांव के लोगों ने रोज़गार की तलाश में मुंबई-पुणे जैसे महानगरों का रुख करना शुरु कर दिया।

बदलाव की बयार बहनी शुरु हुई 1989 में। गांव के लोगों ने पाया कि उनकी समस्याओं का हल उन्हें ही तलाशना होगा। गांव के एक पढ़े-लिखे नौजवान पोपटराव पवार को सरपंच बनाने के लिए लोगों ने राज़ी किया। एम.कॉम. कर चुके पोपटराव क्रिकेट के अच्छे खिलाड़ी थे, और पुणे यूनिवर्सिटी की तरफ से राष्ट्रीय स्तर की क्रिकेट खेल चुके थे।

पोपटराव की अगुवाई में 26 जनवरी 1989 को हिवरे बाज़ार ग्राम सभा की पहली बैठक हुई। गांव के लोगों ने समस्याओं को प्राथमिकता के आधार पर हल करने का फैसला किया। सबसे पहला फैसला गांव के स्कूल के बारे में किया गया। चौथी तक चलने वाले गांव के सरकारी प्राथमिक स्कूल की इमारत जर्जर हो चुकी थी।

गांव के लोगों ने बिना किसी सरकारी मदद के अपने दम पर स्कूल की नई इमारत खड़ी कर दी। गांव के 18 लोगों ने स्कूल के लिए अपनी ज़मीनें छोड़ दीं। स्कूल में टीचर नहीं थे, तो गांव के पढ़े-लिखे लोगों ने बिना किसी पारश्रमिक के बच्चों को पढा़ना शुरु किया। उसी स्कूल में आज दसवीं कक्षा तक की पढ़ाई होती है, और स्कूल में पढ़न वाले चालीस फीसदी बच्चे दूसरे गांवों से आते हैं।

गांव का दूसरा सबसे अहम फैसला लिया गया पानी की कमी को दूर करने का। 1995 में महाराष्ट्र सरकार ने आदर्श ग्राम योजना शुरु की। हिवरे बाज़ार उन तीन गांवों में से एक था, जहां इस योजना के तहत जल संरक्षण के लिए काम किया जाना था। गांव के लोगों ने पांच साल की इस योजना को सिर्फ दो साल में पूरा कर दिखाया।

बारिश के पानी को बहने से रोकने के लिए गांव के पहाड़ी क्षेत्र में वाटर शेड का काम गांववालों ने मुफ्त श्रमदान करके किया। गांव में वनविभाग की ज़मीन एक समय गांव के लोगों ने ही उजाड़ दी थी, उसी ज़मीन पर लोगों ने इस बार ख़ुद पेड़ लगाए जो बारिश के जमा पानी से फलने-फूलने लगे। गांव के लोगों ने ये भी तय किया वो जंगल में अपने जानवर नहीं चराएंगे और ना ही पेड़ की लकड़ियां काटेंगे।

इन सारी क़वायदों से गांव में ज़मीन के नीचे का जलस्तर काफी बढ़ गया। लेकिन इस पानी को सही तरीके से इस्तेमाल करने के लिए ग्राम सभा ने कुछ और फैसले किए। खेती के लिए बोरवेल से पानी खींचने की मनाही कर दी गई। सिंचाई का काम कुओं से मोटर के ज़रिये पानी खींचकर किया जाने लगा।

पानी के सही इस्तेमाल के लिए एक और महत्वपूर्ण फैसला ग्राम सभा में लिया गया। ज़्यादा पानी की ज़रूरत वाली फसलों जैसे गन्ना और केला नहीं उगाने का निर्णय लिया गया। इसकी जगह ज्वार, बाजरा, प्याज़ और कैश क्रॉप्स (हरी सब्ज़ियां) उगाने पर सहमति हुई। आज गांव के ज़मीन में इतना पानी है कि अगर किसी साल बारिश न भी हो, तो खेत सूखे नहीं रहेंगे।

पानी की समस्या दूर होने से गांव की तस्वीर बदलने लगी। रोज़गार के लिए शहरों में पलायन करने वाले लोगों ने गांव लौटना शुरु कर दिया, और खेतों में काम करने लगे। लोगों ने पशुपालन पर भी ज़ोर दिया और दुग्ध उत्पादन में उल्लेखनीय बढ़ोतरी दर्ज की गई। गांव में ख़ुशहाली लौटने से ज़मीन की क़ीमत कई गुना बढ़ गई।

गांव के कुछ लोग बढ़ी क़ीमतों में अपनी ज़मीने बेचना चाहते थे। लेकिन ग्राम सभा ने इस बारे में एक महत्वपूर्ण फैसला लिया। हिवरे बाज़ार की ज़मीन को गांव से बाहर के लोगों को बेचना निषेध कर दिया गया। जम्मू-कश्मीर में बाद कदाचित ये दूसरी ऐसी जगह होगी जहां अघोषित रूप से भारतीय संविधान की धारा 370 लागू है।

सामाजिक विकास और महिला सशक्तिकरण के क्षेत्र में भी ग्राम सभा ने कई अहम फैसले लिए। गांव में शादी से पहले एचआईवी टेस्ट कराना ज़रूरी कर दिया गया। ये फैसला गांव के लोगों ने उसी वक़्त (2003 में) ले लिया था, जब देश की किसी भी सरकार ने इस बारे में सोचा भी नहीं था। गांव के हर घर के बाहर दीवार पर महिला का नाम पुरुष से ऊपर लिखा हुआ है।

आर्थिक और सामाजिक रूप से बेहतर होने के बाद गांव अपराध मुक्त हो गया है। जिस गांव में आए दिन ख़ून-खराबा हुआ करता था, उस गांव का नाम क़रीब दस साल से किसी अपराध रजिस्टर में दर्ज नहीं है। गांव में शराब, बीड़ी, सिगरेट और गुटखे ख़रीदने-बेचने पर पाबंदी है। प्लास्टिक बैग का इस्तेमाल भी नहीं किया जाता है।

गांव की इतना महिमा-मंडन शायद आपको थोड़ा बोझिल लग रहा होगा, लेकिन मैंने ऐसा करना इसलिए ज़रूरी समझा क्योंकि कदाचित ऐसे ही गांव का सपना हर कोई देखता है। और यक़ीन मानिए इस सपने को साकार करना बहुत मुश्किल नहीं है। इसके लिए योजनाएं 6 लाख गांवों के लिए एक ही जगह पर एकसाथ नहीं, बल्कि एक-एक गांव के लिए अलग-अलग बनानी होंगी।

इन योजनाओं को बनाने की ज़िम्मेदारी गांव के लोगों यानी ग्राम सभाओं को देनी होंगी औऱ योजनाओं को लागू करने के लिए फंड भी सीधे उन्हीं को देना होगा। स्वराज का ये मॉडल सिर्फ गांवों में ही नहीं शहरों में भी लागू किया जा सकता है, जहां समान ताक़त मुहल्ले के लोगों को देनी होंगी। लेख पढ़ने के लिए समय देने का शुक्रिया।

विनोद अग्रहरि

Saturday, February 21, 2009

मंदी से हारे दुनिया से लड़ने वाले



एक और अख़बार छपना बंद हो गया, एक और न्यूज़ चैनल बिक गया। कुछ वक़्त पहले जब इन्होंने शुरुआत की थी, तो दुनिया से लड़ने का दंभ भर रहे थे। समाज से, भ्रष्टाचार से, आतंकवाद से, संप्रदायवाद से... लेकिन आज ये सभी परास्त हो रहे हैं। किससे... मंदी से। मंदी के आगे ये लड़ाके बेबस हैं। कलम की धार कमज़ोर पड़ जाती है, दिमाग़ काम करना बंद कर देता है जब बाज़ार में मुनाफे का गणित गड़बड़ा जाता है।

हाल की कुछ घटनाएं उन थोड़े-बहुत लोगों का भ्रम दूर करने के लिए काफी हैं जिन्हें अब भी लगता है कि पत्रकारिता एक मिशन है, व्यवसाय नहीं। दुनिया बदल गई है, पत्रकारिता का स्वरूप भी बदल गया है। आज न तो बिना मुनाफे के कोई मीडिया संगठन चल सकता है, और न ही बिना पैसे के कोई पत्रकार काम करना चाहेगा।

तो क्या अख़बार या चैनल चलाने और एक दुकान चलाने में कोई फर्क़ रह गया है? कोई मालिकों से पूछे कि अगर मुनाफा कमाना ही मक़सद था, तो चैनल या अख़बार को ही धंधा क्यों बनाया? या फिर वो पत्रकार जवाब दें जिन्होंने अच्छा पैसा कमाने और ऐशोआराम की ज़िंदगी जीने के लिए पत्रकारिता को चुना।

इस बात में कोई शक़ नहीं कि हर संगठन की गाड़ी मुनाफे के इंजन से चलती है। मुनाफा हो, अच्छी बात है। कंपनी का भला होगा, उसमें काम करने वालों लोगों की ज़िंदगी बेहतर होगी। लेकिन क्या मुनाफा ही मीडिया संगठनों का एकमात्र उद्देश्य होना चाहिए? जब दूसरों की दुकानें बंद हो रही थी, लोग बेनौकरी हो रहे थे, तब तो ख़ूब शोरगुल मचाया गया। अब अपने कर्मचारियों की चिंता क्या मीडिया संगठनों को है?

अख़बार तब भी छप रहे थे, जब आपातकाल लगा था। अख़बारों को सरकारी विज्ञापन मिलने बंद हो गए थे, लेकिन कलम चलती रही। आज तो सारा खेल बाज़ारवाद का है। चाहे चैनल हों, अख़बार हों या फिर उनमें काम करने वाले। चैनल या अख़बार को मुनाफा कम होगा, तो छंटनी, नुकसान होगा तो बंदी। पत्रकारों के लिए जहां अच्छा पैसा, वहां नौकरी।

लेकिन इन सबके बावजूद सैकड़ों न्यूज़ चैनल आ रहे हैं। कई अख़बार शुरु हो रहे हैं। इनका मक़सद भी दूसरों से अलग नहीं है। इनकी आड़ में उद्योगपतियों के बाक़ी व्यवसाय चमकेंगे। तो फिर हम किस पत्रकारिता की बात करते हैं? क्यों हम कहते हैं कि मीडिया लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है? क्या बाक़ी तीन स्तंभ भी मुनाफे के लिए चलते हैं?

विनोद अग्रहरि

Friday, January 30, 2009

देशभक्तों को शुभकामना

आप सभी पढ़ने वालों को गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं। शुभकामना देना दुनिया का सबसे आसान काम है। आमतौर लोग सिर्फ लेना जानते हैं, देना नहीं। लेकिन बात जब शुभकामना देने की हो, तो लोग दिल खोल कर देते हैं। मैसेज पे मैसेज, सड़कों-चौराहों पर लगी होर्डिंग। ज़्यादातर लोग इन शुभकामनाओं के ज़रिये अपना उल्लू सीधा करते हैं। ग़ौर कीजिए, पिछले साल में होली, पंद्रह अगस्त, दीपावली, ईद, क्रिसमस और नए साल पर कितने लोगों ने आपको शुभकामनाएं दी होंगी। क्या वो सभी आपके शुभचिंतक ही हैं, या फिर कितने लोग दिल से शुभकामनाएं देते हैं, ये भी तय करना मुश्किल है।

शुभकामना संदेश की ताक़त को सबसे ज़्यादा भुना रहे हैं नेता। सड़कों पर लगी होर्डिंग्स पर इनके शुभकामना संदेश कुछ इस तरह लिखे होते हैं- आप सभी को दीपावली, ईद, छठ पर्व, क्रिसमस और नए साल की ढेरों शुभकामनाएं। ध्यान दीजिएगा क्या वाकई इन्होंने ऐसा कोई काम किया है, जिससे आपकी होली-दीपावली शुभ हो सके। हां मगर, एक शुभकामना संदेश से उनके कई हित सध गए। समाज के सभी वर्गों को बधाई देकर वो सेक्यूलर हो गए। दीपावली से नए साल तक अब यानी कम दो-तीन महीनों तक संदेश की प्रांसगिकता बनी रहेगी, सो बोर्ड बदलवाने की ज़रूरत नहीं। होर्डिंग के ऊपर लगी पार्टी प्रमुखों की तस्वीरों से उन्होंने अपनी स्वामीभक्ति भी दर्ज करा दी।

न तो इस तरह की होर्डिंग्स पर नगम निगम को कोई टैक्स चुकाया जाता है, और न ही निगम इन अवैध होर्डिंग्स को हटाने में दिलचस्पी रखता है। अब भले ही आप इनकी शुभकामनाएं लेना न चाहें क्योंकि आपको इन शुभकामनाओं से कुछ मिलना तो है नहीं। लेकिन फिर भी नेताओं की होर्डिंग्स चौराहों पर लगी रहेंगी, क्योंकि शुभकामना देने उनका क्या जा रहा है।

गणतंत्र दिवस पर भी शुभकामनाओं की बौछार हुई। लोगों ने एक-दूसरे को देशभक्ति से भरे संदेश भेजे। देशभक्ति भी सेक्यूलरिज़म की तरह बड़ा डिप्लोमैटिक टाइप शब्द है। गणतंत्र दिवस पर मैं अपनी छत पर तिरंगा नहीं फहरा पाया। कुछ लोगों की नज़रों में देशभक्त न कहलाने का एक क्राइटेरिया मैंने पूरा कर लिया। मैंने किसी को गणतंत्र दिवस का एसएमएस नहीं किया। शायद इसलिए भी मैं देशभक्त नहीं। देशभक्ति है क्या और देशभक्त कौन है, ये तय करना बड़ा अजीब है।

चीन ने अपने देशवासियों से कहा है कि मंदी के दौर में वो पैसे ख़ूब ख़र्च करें। संकट की इस घड़ी में जो नागरिक अपनी सारी कमाई ख़र्च करेगा, वही देशभक्त है। हमारे यहां देशभक्ति के मानदंड कभी इस तरह के नहीं रहे। 26 जनवरी जैसे दिनों को हम शहीदों को कुछ देर तक शहीदों की याद में रोमांचित होकर हम ख़ुद को देशभक्त मानने लगते हैं। देशभक्त होने का ये बड़ा आसान और प्राकृतिक तरीका है। इस लिहाज़ से हर देशवासी ख़ुद को देशभक्त कह सकता है।

इनमें वो देशभक्त भी शामिल हैं जो कर की चोरी करते हैं, ग़रीबों का राशन खा जाते हैं, वन्य जीवों की हत्या करते हैं, बच्चों का बचपन बर्बाद करते हैं, जंगली लकड़ियों की तस्करी करते, बिजली की चोरी करते हैं और ग़ैरप्रांतीय-ग़ैरमहज़बी-ग़ैरजातीय लोगों से भेदभाव करते हैं हैं। इन सभी कामों से क्या देश या देश की छवि को नुकसान नहीं होता। देश को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से नुकसान पहुंचाने वाले देशभक्त कैसे हो सकते हैं। दरअसल देशभक्त होना उतना आसान काम नहीं जितना हम लोग समझते हैं।

देशभक्त होने के लिए देश को सबसे ऊपर रखना होगा। अपने छोटे-छोटे हितों के बारे में सोचने से पहले देश पर होने वाले उसके असर को सोचना होगा। ऐसा करना हर देशभक्त के बस की बात नहीं। इसके लिए हिम्मत चाहिए, त्याग चाहिए। सिद्धांत की ये बातें करने में काफी मुश्किल हैं, लेकिन कम से कम फंडा तो क्लियर होना ही चाहिए। ताकि हमें ये तय करने में दिक़्क़त न हो कि क्या हम वाकई देशभक्त कहलाने के लायक हैं। सच्चा देशभक्त ही देश और देशवासियों का शुभेच्छु हो सकता है, और तब शुभकामना दिए बग़ैर भी लोगों का शुभ हो सकेगा।

आपका विनोद अग्रहरि