Tuesday, January 21, 2014

बदले बिना बदलाव ?



दो दिन से मेट्रो के तीन-चार स्टेशन बंद हैं। सड़क पर मजमा लगा है। कोई कह रहा है अराजकता फैल रही है। कोई कहता है न जाने कितने मरीज़ अस्पताल देर से पहुंचे। ये भी कहा जा रहा है कि 26 जनवरी की परेड की तैयारी नहीं हो पा रही। लोगों की सुरक्षा ख़तरे में है। सरकार ही ऐसे करेगी, तो लोगों में क्या संदेश जाएगा। 

बहुत से लोग इसके लिए दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल को ज़िम्मेदार ठहरा रहे हैं। कुछ का मानना है कि उनकी मांग (दिल्ली पुलिस का नियंत्रण दिल्ली सरकार को देना) सही नहीं है। कुछ का मानना है कि उनकी मांगें सही हो सकती हैं, लेकिन उसे मनवाने का तरीका ग़लत है।

पहले, उनकी मांगों के औचित्य पर बात कर लेते हैं। दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा नहीं मिला है। कई महत्वपूर्ण विभाग अब भी केंद्र सरकार के पास हैं, जिनमें दिल्ली पुलिस भी एक है। दिल्ली जब भी अपराध की वजह से चर्चा में आती है, दिल्ली सरकार अपनी मजबूरी बता देती है।

कई बार कांग्रेस की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित भी दिल्ली पुलिस को कठघरे में खड़ा कर चुकी हैं। यानी अब तक कि सरकारों ने भी माना है कि दिल्ली की सुरक्षा व्यवस्था में खामियां हैं। पता नहीं कि पूर्व गृह सचिव आर के सिंह की बातों में कितनी सच्चाई है जिसके मुताबिक दिल्ली के थाने बिके हुए हैं। बात यहां तर्क की है। 

दिल्ली में हाल के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को जनता ने नकार दिया। ज़ाहिर तौर पर इस बार चुनाव में सुरक्षा, ख़ासकर महिलाओं की सुरक्षा भी एक बड़ा मुद्दा था। सुरक्षा दिल्ली में रह रहे लोगों की, जिन्होंने अपनी सरकार चुनी है। ऐसे में इनकी सुरक्षा की ज़िम्मेदारी उस पार्टी की सरकार को कैसे दी जा सकती है, जिसे लोगों ने चुनाव में नकार दिया

अब लोगों को बरगलाया जाता है कि दिल्ली राज्य ही नहीं, देश की राजधानी भी है और इसलिए संवेदनशील है। यहां वीवीआईपी की सुरक्षा सूबे की सरकारों के भरोसे नहीं छोड़ी जा सकती। इसका मतलब है कि दिल्ली के बहुसंख्यक आम आदमी की सुरक्षा से ज़्यादा अहम है वीवीआईपी की सुरक्षा?

ऐसा नहीं है कि राज्य के हाथ में पुलिस की कमान सौंपने से सारी समस्याओं का हल हो जाएगा। अगर होता, तो बाक़ी राज़्यों की पुलिस बेहतर कर रही होती। लेकिन जब ये साबित हो चुका है कि दिल्ली में सुरक्षा का मौजूदा सिस्टम फेल हो चुका है, तो उससे चिपके रहने का क्या मतलब है?

अब बात करते हैं विरोध के तरीकों की। अगर धरना-प्रदर्शन करना विरोध का ग़लत तरीक़ा है, तो गांधीवादी तरीका क्या है? क्या मंत्री बनने से किसी के नागरिक अधिकार ख़त्म हो जाते हैं? कौन सा ऐसा उपाय किया जाय, जिससे बात बन जाय? क्या आपको लगता है कि केंद्र सरकार दिल्ली पुलिस की डोर किसी और तरीके से राज्य सरकार को सौंप देगी, अगर हो तो ज़रूर शेयर कीजिए।

अब बात लोगों को हो रही मुश्क़िलों की। क्या मेट्रो के स्टेशन अरविंद केजरीवाल ने बंद कराए? क्या दिल्ली की ट्रैफिक इतनी बेक़ाबू हो गई कि उसे संभाला नहीं जा सकता? मैं मानता हूं कि बहुत से भाइयों-बहनों की तक़लीफ़ें झेलनी पड़ रही हैं। लेकिन मुझे बताइए कि बिना तक़लीफ़ के किस बदलाव की उम्मीद करते हैं हम?

क्या हमें आज़ादी कप-प्लेट में रख कर दी गई थी? क्या बरसों पुराने ये सिस्टम बिना किसी परेशानी के बदल जाएंगे? क्या हम ये कह रहे हैं कि हमें बदलाव चाहिए, लेकिन एक भी दिन ऑफिस लेट हुए बिना? क्या हम ऐसी हर कोशिश को ये कहकर ख़ारिज करते रहेंगे कि इसमें किसी की राजनीतिक महत्वाकांक्षा है

अगर ऐसा है तो फिर वाकई केजरीवाल अपना और आपका समय ख़राब कर रहे हैं। छोड़िए ये सब। 26 जनवरी की परेड देखते हैं। 5000 किलोमीटर तक मार करने वाली मिसाइल बना ली हमने। सीना चौड़ा करते हैं और आंखें मूंद लेते हैं कि अतिथि देवो भव: वाले इस देश में विदेशी पर्यटक के साथ रेप भी थोड़ी ही दूरी पर हुआ था। क्या फर्क़ पड़ता है कि इस मामले में आजतक किसी पुलिस कर्मचारी की ज़िम्मेदारी तय नहीं की जा सकी। 

पहले ठीक था। जल्द ही फिर ठीक हो जाएगा। फिर मेट्रो चलेगी। 26 जनवरी की परेड होगी। सरकार सचिवालय से काम करेगी। कोई धरना-प्रदर्शन नहीं होगा। फिर तो हम ख़ुश होंगे न?



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